Water pollution in villages - A post in Hindi by Ram Naresh Kumar and Sanjay Singh

दिनोंदिन द्रुतगति से बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए हमारी कृषि भूमि पर दबाव काफी बढ़ गया है
5 Apr 2011
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गांवों में जल प्रदुषण 

       जिस कारण अधिकाधिक उपज लेने के लिए रासायनिक उर्वरकों खरपतवारनाशकों तथा कीटनाशकों आदि का उपयोग भी तेजी से बढ़ गया है, जो ग्रामीण क्षेत्रों में खतरनाक जल प्रदुषण को जन्म देता है। इसके अलावा नगरीय कूड़े-कचरे, मल-मूत्र, प्लास्टिक और पॉलीथीन तथा विभिन्न उद्योगों के अवशिष्ट पदार्थो को नदियों तथा अन्य प्राकृतिक जलस्त्रोतों में बहा देने से भारी मात्रा में जल प्रदुषण पैदा होता है। जल प्रदुषण का दुष्प्रभाव न केवल उन जीवों पर पड़ता है जो जल के भीतर ही जीवनायापन करते हैं, अपितु इसका कुप्रभाव ग्रामीण जनस्वास्थ्य पर भी पड़ता है।

ऐसे पदार्थ या वस्तुएं जिनके कारण जल के प्राकृतिक गुण-धर्म नष्ट हो जाते हैं, और वे जीवों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो जाती हैं, जल प्रदूषक कहलाती हैं। ये जल प्रदूषक कृषि, उद्योग तथा अन्य मानवीय क्रिया-कलापों के द्वारा उत्पन्न् होते हैं। जल सबसे अधिक औद्य़ोगिक अवशिष्ट के कारण प्रदूषित होता है। चीनी, अल्कोहल, उर्वरक, तेलशोधक, कपड़ा, कागज और लुगदी, कीटनाशक, औषधिक, दुग्ध उत्पाद, ताप विद्युत गृह, चर्म, कार्बनिक तथा अकार्बनिक रसायन, सीमेंट, रबर तथा प्लास्टिक, खाद्‌य-प्रसंस्करण आदि उद्योग जल प्रदुषण के मुखय कारक हैं।

इसके अलावा मलमूत्र, प्लास्टिक तथा पॉलीथीन कचरा, भारी धातुएं आदि भी प्रमुख जल प्रदूषक हैं। मानव अपने उपभोग तथा कृषि कार्यो हेतु जल का दोहन भूमिगत स्त्रोतों से करता है। अभी तक भूमिगत जल स्त्रोतों को शुद्ध माना जाता था लेकिन हाल के वर्षों में भूमिगत जल में कार्बनिक रसायनों, भारी धातुओं तथा अन्य प्रदूषकों की उपस्थिति का पता चला है जिससे स्पष्ट है कि प्रदुषण ने वहां भी अपना घर बना लिया है। शहरों में सीवर लाइनों का जाल-सा बिछा होता है जिनकी सहायता से मलमूत्र को नदियों आदि में छोड़ा जाता है। कई बार इन सीवरों में रिसाव होता रहता है जिस कारण मलमूत्र रिस-रिसकर भूमिगत जलस्त्रोतों तक पहुंचता रहता है। इस प्रकार औद्योगिक अवशिष्ट आदि भी मिट्‌टी की केशनलिकाओं के द्वारा भूमिगत जलस्त्रोतों तक पहुंचता रहता है।

मानव उपभोग हेतु पेयजल मुख्यतः जलस्त्रोतों से ही प्राप्त किया जाता है। नगरों तथा कस्बों में तो इस भूमिगत जल को साफ, उपचारित और कलोरीनीकृत करके इसका उपयोग किया जाता है लेकिन गांवों में इसका सीधे ही इस्तेमाल कर लिया जाता है जिस कारण भूमिगत जल प्रदुषण का सर्वाधिक बुरा प्रभाव ग्रामीणों के स्वास्थ्य पर ही पड़ता है। गांवों में पेयजल प्राप्त करने के मुखय साधन हैडपम्प या कुएं होते हैं जो प्रदूषित भूमिगत जल को ही हमारे रसोईघर में पहुंचा देते हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि गांवों में पेयजल को साफ करके ही प्रयोग में लाया जाए। भूमिगत जल प्रदुषण का सबसे बड़ा खतरा यह है कि स्थलीय जल की भांति इसमें स्वतः शुद्धि की क्षमता नहीं होती है। यदि एक बार भूमिगत जल प्रदूषित हो जाए तो उसे प्रदूषण रहित बनाना लगभग असंभव है। इसलिए एक ओर तो हमें कोशिश करनी चाहिए कि भूमिगत जल प्रदूषित न हो तो दूसरी ओर भूमिगत जल का प्रयोग पेयजल के रूप में करने से पूर्व उसे स्वच्छ और शुद्ध अवश्य बना लेना चाहिए।

       फलोराइड और नाइट्रेट ऐसे रासायनिक पदार्थ हैं जिनकी हमारे शरीर को बेहद अल्प मात्रा में आवश्यकता होती है लेकिन यदि इसकी मात्रा थोड़ी सी भी अधिक हो जाए तो यह स्वास्थ्य के लिए गम्भीर खतरा बन सकता है। प्रकृति में फलोराइड वायु, जल, मृदा, सब्जी, समुद्री जल तथा पशुओं और मनुष्यों के तंतुओं (मांस पेशियों) में पाया जाता है। प्रदूषित भूमिगत जल में इसकी मात्रा काफी अधिक होती है। मानव शरीर में फलोराइड मुखयतः भूमिगत जल, सब्जियों और मांस के द्वारा पहुंचता है। यदि शरीर में इसकी मात्रा अनुमन्य स्तर से अधिक हो जाती है तो यह फलोरोसिस या फलोराइड टॉक्सीकोसिस जैसे खतरनाक रोग का कारण भी बनता है। दांतों के एनामेल (उपरी परत) के निर्माण के लिए फलोराइड आवश्यक है लेकिन शरीर में इनकी मात्रा यदि 1 पीपीएम से अधिक हो जाए तो यह एनामेल के लिए खतरा बन जाता है।

       नाइट्रेट भी मुखयतः भूमिगत जल के माध्यम से ही मानव-शरीर में पहुंच कर उसे नुक्सान पहुंचाता है। नाइट्रेट नाइट्रोजन का यौगिक है और नाइट्रोजन भूमि में कई स्त्रोतों से पहुंचती है। कुछ पौधे जैसे अल्फा-अल्फा और अन्य दलहनी पौधे वायुमंडल की नाइट्रोजन का यौगिकीकरण कर देते हैं। इस नाइट्रोजन का कुछ भाग तो पौधों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है और बाकी भाग जल में घुलकर मिट्‌टी की केशनलिकाओं की सहायता से भूमिगत जल तक पहुंच जाता है। सड़े-गले पौधों, पशुओं के अवशेष (मृत शरीर), नाइट्रेटयुक्त उर्वरकों और मलमूत्र का नाइट्रेट भी वर्षा जल में घुलकर रिसते-रिसते भूमिगत जल तक पहुंच जाता है। जब इस भूमिगत जल का उपयोग ग्रामीण करते हैं तो उन्हें कई प्रकार के रोग हो जाते हैं। नाइट्रेट की अधिक मात्रा से छोटे बच्चों में मेटहेमोग्लोबैनीमिया या साइनोसिस नामक रोग हो जाता है। इस रोग में बच्चों की त्वचा नीली पड़ जाती है, इसलिए इसे 'बच्चों का नीला रोग' भी कहते हैं। पशुओं में भी इस रोग के होने की प्रबल आंशंका होती है जिसके कारण दुधारू पशुओं के दुग्ध-उत्पादन में अत्यधिक कमी आ जाती है और गायों का गर्भपात हो जाता है। नाइट्रेट, जीव-जंतुओं के शरीर में क्रिया करके नाइट्रोसामीन नामक विषैला यौगिक बनाता है जो कैंसर जनक होता है।

 उपर्युक्त व्याधियों से बचने का एकमात्र तरीका यही है कि नाइट्रेट प्रदुषणरहित जल का ही सेवन किया जाए। यहां उल्लेखनीय है कि जल से नाइटे्रट की मात्रा उसे उबालकर दूर नही की जा सकती। इस अशुधि को दूर करने के लिए निर्लवणीकरण अथवा आसवन करना आवश्यक है।

       मानव स्वास्थ्य के साथ-साथ प्रदूषित जल का दुष्प्रभाव पेड़-पौधों पर भी पड़ता है। इसलिए यदि प्रदूषित जल से सिंचाई की जाए तो यह उपज के लिए नुक्सानदायक साबित जो सकता है। नगरों से निकले घरेलू कचरे, मलमूत्र तथा औधोगिक अवशिष्ट को अधिकतर सीधे नदियों में डाल दिया जाता है जिससे नदी-जल में विभिन्न भारी धातुओं, रासयनिक पदार्थो आदि की सांद्रता काफी बढ़ जाती है। यह प्रदूषित जल जब नदियों या नहरों द्वारा सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जाता है तो इसका कृषि उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

       औधोगिक क्षेत्रों के आसपास की मिट्‌टी में भारी धातुओं की इतनी अधिक प्रचुरता मिलती है कि उसमें उगने वाली वनस्पतियां संदूषित हो जाती हैं। खानों आदि के आसपास उगने वाली सब्जियों में कैडमियम, पारा, सीसे की अत्यधिक मात्रा पाई गई है जो मानव-स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक होती है। बोरान नामक तत्व की अल्प मात्रा तो पौधों के लिए आवश्यक है किन्तु इसकी अधिक मात्रा विषैली हो जाती है। सिंचाई-जल में बोरान की एक मिलिग्राम प्रति लीटर मात्रा ही अनुमन्य है वैसे इसकी दो मिलिग्राम प्रति लीटर मात्रा वाले जल से भी सिंचाई की जा सकती है लेकिन इससे अधिक मात्रा पेड़-पौधों के लिए जानलेवा हो सकती है। बोरान-प्रदुषण के प्रति नींबू, नारंगी, अंगुर, बेर आदि फसलें अत्यधिक संवेदनशील हैं, जबकि गाजर, गोभी, शलजम, प्याज, चुकंदर आदि फसलें बोरान के प्रति उच्च सहनशीलता रखती है।

       भारत सहित समूचे विश्व में कुल कृषि उत्पादन का बहुत बड़ा हिस्सा कीट-पतंगों, फफूंदी, कवक, चूहों आदि द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। भारत में यह समस्या काफी अधिक है जिस कारण हमारे किसानों को काफी नुक्सान उठाना पड़ता है। इन हानिकारक सूक्ष्म जीवों से बचने के लिए विभिन्न प्रकार के रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इन कीटनाद्गाकों के उपयोग से हमारी कृषि उपज तो बढ़ी है लेकिन ये वर्षाजल में घुलकर हमारे प्राकृतिक और भूमिगत जलस्त्रोतों को बुरी तरह प्रदूषित कर देते हैं।

       इन जीवनाशी रसायनों से पर्यावरण तो दूषित होता ही है साथ ही इनका दुष्प्रभाव जीव-जंतुओं और वनस्पति पर भी पड़ता है। इनमें से कुछ रसायन तो इतने विषैले होते हैं कि उनसे मछलियां, सांप, कछुए तक मर जाते हैं। मिट्‌टी में डाली गई डीडीटी, गैमेक्सीन, एल्ड्रिन तथा क्लोरोडेन आदि कीटनाद्गाकों का अवशोषी प्रभाव आगामी 12 वर्षों तक देखा गया है। मिट्‌टी से वर्षाजल के साथ बहकर या रिसकर ये रसायन तालाबों, झीलों, नदियों, कुओं तक पहुंच जाते हैं और वहां के जीवन (जीव-जंतु और वनस्पति) को प्रभावित करते हैं। इन स्त्रोतों का जल पीने वाले व्यक्ति कई प्रकार की बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। ठीक इसी प्रकार के दुष्प्रभाव, रासायनिक उर्वरकों के अत्याधिक प्रयोग के भी पड़ते है। खेतों में डाला गया रासायनिक उर्वरक, वर्षाजल में घुलकर और प्राकृतिक जलस्त्रोतों तक पहुंच कर उन्हें प्रदूषित कर देता है।

       जल जीवन के लिए अत्यधिक आवश्यक है, लेकिन यदि यह प्रदूषित हो जाए तो यह जानलेवा भी बन जाता है। प्रदूषित जल के सेवन से विभिन्न प्रकार के जलवाहित रोग हो जाते हैं जैसे- हेजा, टायफाइड, शिशु प्रवाहिका, पेचिश, यकृत शोध, अभीषिका अतिसार, पीलिया, ऐस्केरिएसिस, फीताकृमि रोग आदि। सामान्यतः ग्रामीण क्षेत्रो में तालाब झील, नदी तथा भूमिगत स्त्रोतों का प्रदूषित जल लगातार पीते रहने से ग्रामीण नीरू, सिस्टोसोमायोसिस और लेप्टोस्पाइरोसिस आदि रोगों से ग्रसित हो जाते हैं भूमिगत जल में फलोराइड की अधिकता से जहां दंतक्षय और दंत विकृति के रोग हो जाते हैं, वहीं इसमें फैरस बाइकार्बोनेट की अशुधि के कारण बदहजमी और कोष्ठवद्धता जैसी व्याधियां हो जाती है।

       कीटनाशकों नें ग्रामीण जन-स्वास्थ्य को गंभीर खतरा पहुचाया है। नाइट्रोजनी उर्वरकों के कारण रक्त विषाक्त हो जाता है जिससे बच्चों की तो मृत्यु तक हो जा सकती है।

गांवों को जल प्रदुषण से बचाने के उपाय 

यद्यपि प्रदुषण की समस्या शहरों में ही अधिक है लेकिन हमारे गांव के भी अब इसकी चपेट में आ चुके हैं। यदि ग्रामीण क्षेत्रों में समय रहते ही कुछ सावधानियां बरती जाएं तो निश्चित रूप से ग्रामीण जनजीवन को प्रदुषण के खतरे से बचाया जा सकता है। इसके लिए निम्नलिखित सावधानियां बरतनी चाहिएः

  • प्लास्टिक तथा पॉलीथीन का कचरा मिट्‌टी को प्रदूषित करता है। इसलिए इनका उपयोग कम से कम करना चाहिए।
  • प्राकृतिक जलस्तोत्रों को दूषित होने से बचना चाहिए। गांव के आसपास की नदियों में न तो अधजले शव बहाने चाहिएं और न ही इनमें पशुओं को नहलाना चाहिए।
  • गांव से निकले घरेलू कचरे, मलमूत्र आदि को सीधे नदी, तालाब आदि में नहीं डालना चाहिए।
  • कुओं में भी कूड़ा-करकट नहीं डालना चाहिए। यथासंभव कुओं को ढककर रखना चाहिए और महीने में कम से कम एक बार कुओं में पोटेशियम परमेंगमेंट या ब्लीचिंग पाउडर डालें।
  • गांव के बाहर खुले में शौच नहीं करना चाहिए वरन्‌ शौचालयों का प्रयोग करना चाहिए। शौचालयों के निर्माण के लिए आजकल सरकार द्वारा अनुदान भी दिया जाता है।
  • कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों और रासायनिक उर्वरकों का संतुलित उपयोग किया जाना चाहिए। इनके स्थान पर कुछ अन्य वैकल्पिक साधनों, जैसे जैविक खाद एवं नीम एवं धतूरे आदि से बने प्राकृतिक कीटनाशक, का प्रयोग किया जा सकता है।
  • हमेशा शुद्ध, स्वच्छ व प्रदुषण रहित पेयजल का ही प्रयोग करें। निस्तारण, छनन आदि विधियों से भी पेयजल की कुछ अशुद्धियाँ दूर की जा सकती है।

उपयुक्त सावधानियां बरतने से प्रदुषण की दिन-प्रतिदिन विकराल होती समस्या से बचा जा सकता है, साथ ही ग्रामीण जन-स्वास्थ्य की रक्षा भी की जा सकती है। इस संदर्भ में ग्रामीणों को शिक्षित करने के लिए जनजागरण, जनचेतना, जनसहयोग और जनसहभागिता की सोच विकसित करना आज वक्त की जरूरत है।

कोशीश की जानी चाहिए कि खेतों में रासायनिक पदार्थो का प्रयोग कम से कम किया जाए। इसके स्थान पर हरी कम्पोस्ट खाद का प्रयोग किया जा सकता है। प्राकृतिक स्त्रोत हमारे अपने है। इसलिए इनकी सुरक्षा और संरक्षण का दायित्व भी हमारा ही हैं। अपने दायित्वों की पूर्ति करके ही हम जल-प्रदुषण के खतरे से बचे रह सकते हैं।

 

राम नरेश एवं डा॰ संजय कुमार,

मृदा विज्ञान विभाग, चौ.च.सिं. हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार 

टेलीफ़ोन : 08950094020

 

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