वो नरक ढोती है बस बारिश में दिक्कत होती है

30 Oct 2015
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जीशान अख्तर 'आज़ाद'

 

साल 1993 का था, जब मैं परिवार सहित गाँव से कस्बे (इटावा शहर का क़स्बा भरथना) में आ गया। उम्र लगभग पाँच बरस रही होगी। किराये के घर के पिछवाड़े कूड़े के ढेर से होते हुए हाथ की सहायता से कमर पर डलिया टिकाये एक महिला घर की ओर बढ़ती आती थी। छत पर खड़े होकर अक्सर मैं उसे देखता और देखते ही घर के अन्दर की ओर दौड़ता। माँ को यह बताने के लिए कि ‘वो’ आ गयी। मुझे याद है कि मैंने न कभी उसका नाम जानने की कोशिश की, न मुझे बताया गया और न ही उसे कोई और संज्ञा दी। तब जरूरत भी कहाँ थी। आती और घर में मौजूद झड़ाऊ शौचालय को साफ कर। मल-मैला भर। डलिये को उसी तरह कमर से टिका कर उतनी ही तेजी से निकल जाती थी। माँ से कभी कभार या माह होने पर दूर से खड़े होकर बतिया लेती थी। रोज का यही क्रम था। करीब पाँच साल तक इसी तरह वो मेरा और मेरे परिजनों का मैला ढोने आती रही।

 

1999 में 11 वर्ष की उम्र में हम निजी घर में शिफ्ट हो गये। इसके बाद से आज तक उसका मुझे कोई पता नहीं। आज जब बबलेश सामने बैठी हैं तो बरबस ही उस किराए के मकान में आने वाली वह महिला मुझे याद आ रही है। मुँह पर कपड़ा बाँध, डलिए में राख, झाड़ू और खोमची लेकर उस महिला का आना मेरे लिए तब कोई घटना नहीं था। मुझे लगता था मल की सफाई करने का यही एक तरीका है। अभी बुंदेलखंड के ऐतिहासिक शहर झाँसी में बबलेश के पास बैठ उसकी स्थिति देख मैं उन दिनों को याद कर उलझन में हूँ।

 

1993 में जब भारत सरकार ने मैला ढोने की प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया था, तब मेरे घर में एक महिला मैला ढोने का कार्य करती थी। करीब 20 बरस हो गये इस घटना को। 93 में कानून के साथ ही यह प्रथा उसी समय नेस्तनाबूद हो जानी चाहिए थी। पर उस महिला ने मेरे घर के पीछे की ओर बनी झड़ाऊ शौचालय से मैला ढोने की शुरुआत इसी वर्ष से की। गाँव, कस्बे, शहर पूरी तरह बदल चुके हैं, लेकिन 90 के दशक में मेरे घर आने वाली महिला की तरह बबलेश आज भी घर-घर डलिया लेकर मैला ढोने जाती है। सच तो ये है कि सामने बैठी बबलेश ने मेरे अन्दर अपराध बोध की भावना पैदा कर दी है। बबलेश की उम्र लगभग 40 बरस है। वर्ष 2000 से उसने यह काम शुरू किया। यानी तब से जब हम 21वीं सदी में प्रवेश होने का जश्न मना रहे थे। तरक्की.. आगे बढ़ने.. महाशक्ति बनने.. परचम लहराने का नया संकल्प लिया जा रहा था। ठीक इसी समय 21वीं सदी में आर्थिक तंगी के चलते बबलेश सिर पर नरक ढोने को मजबूर हो रही थी।

 

बबलेश को पता भी नहीं होगा कि वो जो अब तक करती है, उसे रोकने के लिए अधिनियम बन चुका है। 1993 में सफाई कर्मचारी नियोजन एवं शुष्क शौचालय प्रतिषेध अधिनियम बना, लेकिन इस प्रथा को खत्म करने का समय माँगा गया। एक सीमा कानून बनने के 15 साल बाद यानि 2007 तक निर्धारित की गयी। इसके बाद कामयाबी नहीं मिलते देख इसे 2009-10 तक कर दिया गया। आधिकारिक तौर पर यह प्रथा अस्तित्व में नहीं है, लेकिन देश भर में लाखों लोग इस काम में लगे हुए हैं। मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए स्वरोजगार योजना भी चलाई गई, लेकिन इसे इतनी गम्भीरता से नहीं लिया गया।

 

गम्भीरता से लिया भी क्यों जाता, दलितों का यह अछूत वर्ग इतना बड़ा वोट बैंक भी नहीं है। बबलेश बताती है कि नेता आते हैं। घर के बाहर हाथ जोड़कर सिर्फ इतना कहते हैं कि ध्यान रखना। ये बता कर नहीं जाते कि कौन सी पार्टी से हैं। नाम क्या है। चुनाव चिन्ह क्या है। कौन से चुनाव के लिए वोट माँगते घूम रहे हैं। लोगों का मैला ढोने वाली बबलेश को अपने शहर या देश के किसी भी नेता का नाम तक नहीं पता। बबलेश कहती है कि 15 साल से मैला ढोने के काम में कभी जरूरत भी नहीं पड़ी। उसे तो मैला ही ढोना है, किसी को जानने का मतलब भी नहीं।

 

झाँसी शहर के एक कोने पर बसे ईसाई टोले की इस गली में सभी सफाई कर्मी ही रहते हैं। लोग इस गली से नहीं निकलते। एक दो बाइक सवार निकले भी तो एकदम तेजी से। जैसे इस अछूत गली से जल्दी दूर जाना चाहते हों। मैं और मेरी टीम इसी गली में मौजूद बबलेश के घर के अन्दर पहुँच गये। यहाँ कुर्सियाँ डली हैं। बबलेश हमारे सामने बैठी है।

 

बबलेश से यह पूछना कि वह क्या करती है। क्यों करती है। सबसे अहम इस दौर में भी ऐसा कर कैसे लेती है, मुझे बेहद कठिन लग रहा है। मुझे काफी देर लगी यह समझाने में कि वह आखिर उसके घर इतनी निर्भीकता से क्यों आये हैं। बबलेश ने बताया कि 90 के दशक में शादी के बाद जब वह ससुराल पहुँची तो यहाँ आर्थिक तंगी थी। पति रमेश साफ सफाई करते थे। पहले तो किसी तरह चलता रहा, लेकिन शादी के एक दशक बाद जब दो बेटियों सहित उसे चार बच्चे हो गये तो परिवार चलाना, बच्चों के लिए रोटी जुटाना बेहद मुश्किल हो गया।

 

आर्यों के आगमन के पहले यहाँ के मूल निवासी, जिन्हें दानव, असुर, चांडाल, नाग, द्रविड़, दैत्य कहा रहते थे। इन पर आर्यों ने हमले शुरू कर दिए। इनके धर्म ग्रन्थ नष्ट कर दिए। इन्हें जंगलों में खदेड़ दिया। जो लोग बंदी बना लिए गये, उनसे यह नीच कार्य कराया गया। भागे हुए मूल भारतीय (अनार्य) जो कबीले में रहते थे एकत्र होकर इनके (आर्यों) कार्यों में व्यवधान डालते थे। इनके यज्ञ, धार्मिक संस्कारों को भंग करते थे। इसलिए इन्हें भंगी कहा जाने लगा। भंगी का शाब्दिक अर्थ भंग करने वाला है, न कि सफाई करने वाला।

 

बबलेश ने बताया कि जब वह कुंवारी थी तब उसने यह काम नहीं किया था। माँ-बाप करते थे, लेकिन बेटी से उन्होंने यह कभी नहीं कराया। शादी के बाद बच्चों की मौजूदगी, परिवार चलाने में पति की मदद करने की मजबूरी में उसने डलिया उठा ली। वर्ष 2000 में उसने यह काम शुरू किया। यह तब हुआ जब हैरानी की बात है कि वर्ष 2007 तक मैला प्रथा पर प्रतिबंध के 7 साल हो चुके थे।

 

मेरे सामने बैठी बबलेश मुश्किल से बोल पा रही है। शायद यह पहला मौका है जब उससे उसके काम के बारे में कोई सवाल कर रहा है। उसने धीरे से बताया कि वह मैला ढोती है। रोज करीब चार से पाँच घर जाती है। यही उसका काम है। शुरुआत में लगा कि बेहद मुश्किल है। उल्टियाँ तक हो जाती थी। कई बार खाना नहीं खाया गया, लेकिन फिर आदत हो गयी। हाँ, आज भी कभी कभी हूक उठती है... ये जीना भी भला कोई जीना है।

 

 

 

 

एक बड़ी समस्या यह है कि सफाई कामगार समुदाय से जुड़े लोग कुछ और कर भी नहीं सकते। अगर कोई दुकान खोलेंगे। या कोई और व्यापार करेंगे तो ठप हो जायेगा। छुआछूत के चलते इनसे कोई सामान भी नहीं खरीदेगा। बबलेश ने बताया कि मैला ढोने के काम के पीछे यह भी बड़ी वजह थी। वह बताती है कि 18 वर्ष की हो चुकी नीतू की पढाई छूट गयी। बेटे सचिन को भी स्कूल छोड़ना पड़ा। दोनों बच्चों को दूसरे बच्चे स्कूल में ताना देते थे। उनसे छूत मानते थे। इसलिए उन्होंने जाना छोड़ दिया। दो अभी स्कूल जाते हैं। इन्हें भी दूसरे बच्चे छूत मानते हैं। बबलेश की बच्ची प्रियंका बताती है कि वह पढ़ना चाहती है। भाई-बहन की तरह मजबूरी में पढ़ाई नहीं छोड़ना चाहती। हमारे सामने वो किताब लिए बैठी है।

इतनी महँगाई के दौर में यह सुनना वाकई ह्रदय विदारक था कि इतने निकृष्ट काम के बबलेश को महीने में एक घर से सिर्फ 20 रुपये मिलते हैं। पाँच घर से महीने में सिर्फ 100 रुपये। कभी कभी बासी रोटी भी मिलती है। मैला ढोने जैसे काम से महीने में 100 रुपये जुटाकर कितनी गृहस्थी चल सकती है, यह समझ से परे है।

 

नई बस्ती की रहने वाली चंदा से हम उसके घर नहीं मिले। पता लगाया कि वह कहाँ मैला ढोती है। इसमें भी बड़ी मुश्किल हुई। यहाँ अधिकतर को नहीं पता कि उनके इलाके में मैला भी ढोया जाता है। अधिकारी, नेताओं से भी अगर पूछ लिया जाये तो 100 दावे ठोक देंगे कि उनका शहर-देश साफ़ सुथरा है। छुआछूत, जातिगत व्यवहार अब नहीं होता, लेकिन आखिरकार हमने चंदा को खोज निकाला। शहर के बीचों-बीच स्थित सैंयर गेट उसका कार्यक्षेत्र है। मैंने दो दिन तक स्वाभाविक तौर पर यह जानने की कोशिश की कि आखिर वह ये सब कैसे करती है। सुबह दो घंटे तक चुपके से उसके पीछे घूमा। वह भी बबलेश की तरह पाँच घरों में मैला ढोती है। काम के बाद हर घर से उसे रोटी या कुछ और खाने को मिला। जब मुझे लगा कि उसका काम खत्म हो गया तो उससे बात करने की कोशिश की। चंदा बाई ने बताया कि वह चार दशक से इस काम में लगी है। पहले बहुत घर थे। अब मन्दी आ गयी है। झड़ाऊ ख़त्म हो रही है। उसे एक घर से 50 रुपये मिल जाते हैं। कमाल है बबलेश को 20 रुपये ही मिलते हैं। एक ही शहर में इस काम के भाव में भी भेद। चंदा बाई हाथ में पूरी लिए थी। पूछने पर उसने पूरी की थैली सड़क के किनारे छोड़ दी कि ये खराब लग रही हैं। नगरा इलाके की निवासी इस काम को करने वाली एक अन्य महिला से भी मुलाकात हुई। वह बताती है कि बारिश के बीच मैला ढोना बड़ी चुनौती होती है। सिर पर डलिया और बारिश के कारण मैला उनके शरीर पर फैलता है। कई बार खाना नहीं खाया जाता।

 

झाँसी सहित देश के कई शहरों को स्मार्ट सिटी में शामिल किया गया है, लेकिन सिर्फ झाँसी शहर के अन्दर ही 35 से 40 महिलायें मैला ढोने में लगी हुई हैं। इनमें से अधिकतर महिलायें हैं। लगभग 1 साल पहले नगर निगम, झाँसी ने शहर में मैला ढोने वालों की लिस्ट भी सार्वजनिक की थी। लिस्ट में कुल 54 नाम हैं। ये सभी नाम महिलाओं के हैं। इनमें से कुछ महिलाओं ने आधुनिक शौचालय बन जाने के कारण मैला ढोना बन्द कर दिया, लेकिन अभी भी कई इलाके ऐसे हैं, जहाँ महिलायें मैला ढो रही हैं। कमाल की बात ये है कि प्रशासन ने सर्वे कराकर लिस्ट तो जारी कर दी, लेकिन इस काम को बन्द कराना जरूरी नहीं समझा। और न ही उन लोगों पर कार्यवाही या शौचालय बनाए जाने की पहल की गयी, जो मैला ढुलवाते हैं।

 

ये सिर्फ झाँसी शहर या बुंदेलखंड में ही जारी नहीं है। ये काम करने वाली महिलाएँ देश के दूसरे हिस्सों में भी देखी जा सकती हैं।

 

एक स्टडी के अनुसार देश के हर राज्य में ये काम नहीं हो रहा। उत्तर प्रदेश इस काम में सबसे आगे है। कुल संख्या में 73 प्रतिशत लोग गाँवों में मैला ढो रहे हैं... मैला ढोने वालों की संख्या 20 लाख से अधिक है।

 

According to the Census of India, 2011, there are 13, 14, 652 toilets where human excreta is flushed in open drains, 7, 94,390 dry latrines where the human excreta is cleaned manually. 73 percent of these are in rural areas and 27 percent are in urban areas. There are 2।6 millon dry latrines in the country. According to the House Listing and Housing Census 2011, states such as Andhra Pradesh, Assam, Jammu and Kashmir, Maharashtra, Tamil Nadu, Uttar Pradesh and West Bengal account for more than 72 percent of the insanitary latrines in India.

 

देश में यह किसने शुरू कराया और कब से शुरू हुआ, यह स्पष्ट नहीं है। दलित साहित्य के देश के अगली पंक्ति के लेखक संजीव खुद्शाह अपनी किताब ‘सफाई कामगार समुदाय’ में इस काम की शुरुआत की तीन परिकल्पनाएँ देते हैं। उनके अनुसार मुगलों ने जब भारत में आकर पैर जमा लिए तो उन्होंने अपनी बेगमों को भी बुलाना शुरू किया। बेगमें भारत आ गईं, लेकिन बड़ी दिक्कत यह थी कि शौच के लिए कहाँ जाएँ। पूर्व में पैखानों आदि की कोई व्यवस्था नहीं थी। बाहर खुले में शौच को भेजना असुरक्षित हो सकता था। फिर महल में ही शौचालय बनवाये गये। पैखाने की समस्या तो खत्म हो गयी, लेकिन एक बड़ी समस्या खड़ी हो गयी कि मल कौन उठाएगा। ऐसी स्थिति में मुगलों ने बन्दी गृह में बन्द सैनिकों (जो हिन्दू क्षत्रिय सैनिक थे) से यह कार्य कराना प्रारम्भ कर दिया। जो इसका विरोध करते उसे कठोर दंड दिया जाता। कुछ लोगों ने सुविधा की लालच में इस्लाम क़ुबूल कर लिया। विरोधी मौत के घाट उतार दिए गये। कई पीढियाँ यह कार्य करती रहीं। इस तरह पहले एक परिवार, फिर कई परिवार और फिर कुनबा तैयार हो गया। इन्हें शेखड़ा, मुसल्ली, हलालखोर, मेहतर (मेहतर फारसी शब्द है, ‘मैं भंगी हूँ’ के लेखक भगवान दास के अनुसार पाकिस्तान स्थित चित्राल का नवाब मेहतर सरनेम लिखता था) आदि नामों से पुकारा जाने लगा। बस हम ये भूल गये कि ये कौन हैं। इनका इतिहास क्या है।

 

इनके अस्तित्व के शुरुआत की दूसरी परिकल्पना भी है। इस परिकल्पना के अनुसार आर्यों के आगमन के पहले यहाँ के मूल निवासी, जिन्हें दानव, असुर, चांडाल, नाग, द्रविड़, दैत्य कहा रहते थे। इन पर आर्यों ने हमले शुरू कर दिए। इनके धर्म ग्रन्थ नष्ट कर दिए। इन्हें जंगलों में खदेड़ दिया। जो लोग बंदी बना लिए गये, उनसे यह नीच कार्य कराया गया। भागे हुए मूल भारतीय (अनार्य) जो कबीले में रहते थे एकत्र होकर इनके (आर्यों) कार्यों में व्यवधान डालते थे। इनके यज्ञ, धार्मिक संस्कारों को भंग करते थे। इसलिए इन्हें भंगी कहा जाने लगा। भंगी का शाब्दिक अर्थ भंग करने वाला है, न कि सफाई करने वाला। ये तन-मन-धन से कमज़ोर होते गये। इन्हें पेट की खातिर जो भी काम मिला उसे करते गये। बाद में इन्होंने सफाई का पेशा अपना लिया।

 

तीसरी परिकल्पना भी कुछ ऐसी ही है। संजीव खुदशाह के अनुसार प्राचीन समय में आर्यों के सामाजिक बंधन, नियम-कानून कड़े थे। हर गाँव में पंच-पंचायत, सखिदार, चौधरी, राजा के रूप में प्रशासन चलाया जाता था। उस समय दंड के भागीदार अपराधी सत्ता विरोधी, दुश्चरित्र तथा कामचोर, लापरवाह लोग समाज से बहिष्कृत कर दिए जाते थे। भगोड़े या विरोधी सैनिक होते थे। इन्हें गाँव के बाहर ही रहने दिया जाता था। अपने पेट की ज्वाला शांत करने के लिए ये लोग कुछ भी करने को तैयार हो गये कुछ लोगों ने दंडस्वरुप नीच पेशा अपनाना शुरू कर दिया। ये लोग गाँव के बाहर रहते थे और इसी पेशे में रम गये। किताब के अनुसार ये लोग (मुसीबत के मारे) दलित रहे होंगे। यह तय है कि ये शासन के विरोधी रहे होंगे। यह जाति विदेशों से आयात नहीं हुई। मेहतर जाति के अस्तित्व की यही तीन परिकल्पनाएँ हैं।

 

दलित चिन्तक और समता मूलक समाज की वकालत करने वाले डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इस काम को घिनौना करार दिया। वहीं, महात्मा गाँधी ने इसे कर्म बताया। उन्होंने कहा कि 'मुझे अगर अगला जन्म लेना पड़े तो भंगी समाज में जन्म लेना चाहूँगा।' डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि 'भंगी झाड़ू छोड़ो।' गाँधी ने नारा दिया 'यह पुरुषार्थ का काम है। भंगी हड़ताल न करें। भंगी हिन्दू समाज से अलग नहीं हैं। लगभग सभी दलित चिन्तक लेखक मानते हैं कि गाँधी का यह रोल इस समाज के लिए घातक साबित हुआ। इससे इनकी प्रगति नहीं हो पायी।

 

‘भंगन डॉक्टरनी’ के लेखक डॉ. सुधीर सागर मानते हैं कि महत्मा गाँधी की इच्छा थी तो उन्होंने तभी ये काम क्यों नहीं किया। डॉ. भीमराव ने इस काम का पुरजोर विरोध किया। कई दशक बीत गये। इस काम का विरोध भी जारी है। 93 में इसे प्रतिबंधित भी कर दिया गया, लेकिन देश में यह काम आज भी किया जा रहा है। मोदी की सरकार कई जगहों पर शौचालय तो बनवा रही है, लेकिन मैला ढोने वाले मैला ही ढो रहे हैं।

 

सभी आँकड़े साभार। संख्या अलग-अलग हो सकती है, क्योंकि लगभग सभी सर्वे गैर सरकारी संगठनों द्वारा अपने-अपने तरीकों से किये गये हैं।

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