स्वच्छता, समाज और सरकार

6 Oct 2015
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सुनील तिवारी

 

केन्द्र सरकार की महत्वकांक्षी योजना ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को शुरू हुए एक साल का समय हो चुका है। गौरतलब है कि पिछले साल गाँधी जयंती के सुअवसर पर प्रधानमन्त्री मोदी ने इस योजना की शुरुआत बड़े जोर-शोर से की थी। उसके बाद देश के लगभग सभी नेता भारत को स्वच्छ बनाने की मुहिम में शामिल होते नजर आए। लेकिन यह बड़ी दुखद बात है कि स्वच्छ भारत अभियान के एक वर्ष का जो रिपोर्ट कार्ड सामने आया है वह काफी निराशाजनक है। भारत के चार सौ तिहत्तर शहरों में किए गए एक सर्वे के मुताबिक कर्नाटक का मैसूर नगर देश का सबसे स्वच्छ शहर है, जबकि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली का शीर्ष दस में भी नाम नहीं है। दिल्ली ही क्यों, दस की इस सूची में उत्तर भारत का एक भी शहर शामिल नहीं है।

 

 

स्वच्छ भारत अभियान के अन्तर्गत घर-घर में शौचालय बनाने का भी लक्ष्य निश्चित किया गया है। इसके बावजूद भारत में अब भी तिरपन फीसद लोगों के पास शौचालय की मूलभूत सुविधा नहीं है। यानी हर दूसरा व्यक्ति खुले में शौच करने को मजबूर है। आँकड़े बताते हैं कि 1992-93 में जहाँ सत्तर फीसद लोगों के पास शौचालय की सुविधा नहीं थी, वहीं यह आँकड़ा घटकर 2007-08 में इक्यावन फीसद रह गया था। लेकिन विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार यह आँकड़ा तिरपन प्रतिशत है। ग्रामीण भारत के छियासठ प्रतिशत और शहरी भारत के उन्नीस प्रतिशत लोग शौचालय की सुविधा से वंचित हैं।

 

अगर राज्यों की बात करें तो झारखण्ड और बिहार की स्थिति कुछ ज्यादा ही खराब है, जहाँ तिरासी प्रतिशत लोग शौच के लिए खुले स्थानों का प्रयोग करते हैं। छत्तीसगढ़ में 82.1 प्रतिशत, राजस्थान में 73.9 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 72.6 प्रतिशत, जम्मू-कश्मीर में 58 प्रतिशत, उत्तराखण्ड में 45 प्रतिशत, हरियाणा में 42 प्रतिशत, हिमाचल में 32 प्रतिशत लोगों को खुले में शौच करना पड़ता है। कुछ राज्यों की स्थिति बेहतर मानी जा सकती है, जिनमें मिजोरम प्रथम, लक्षद्वीप दूसरे, केरल तीसरे और दिल्ली चौथे स्थान पर है। मिजोरम में 98.8, लक्षद्वीप में 98.2, केरल में 96.7 और दिल्ली में 94.3 प्रतिशत लोगों के पास शौचालय की सुविधा मौजूद है। इन राज्यों के आँकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि जिन राज्यों में गरीब तबके की आबादी अधिक है, वहाँ शौचालय की सुविधा से वंचित लोगों की तादाद भी अधिक है। इस तरह इस समस्या और गरीबी में एक सीधा सम्बन्ध दिखता है। जाहिर-सी बात है कि जब गरीबों के पास सिर ढकने के लिए आशियाना ही नहीं होगा तो शौचालय की सुविधा के बारे में वे कैसे सोंचेगे।

 

पिछले साल स्वच्छ भारत अभियान जिस ढंग से शुरू हुआ उसी से यह जाहिर हो गया था कि इसमें प्रचार-प्रसार पर ज्यादा जोर है, वास्तविक काम पर कम। यह अभियान शुरू होते ही नेताओं खासकर सत्तारूढ़ दल के तमाम राजनीतिकों के लिए फोटो खिंचवाने और छपवाने के अवसर में बदल गया। काफी प्रचार करके किसी निश्चित स्थान पर महानुभाव एकत्र होते, और चन्द मिनटों में सफाई हो जाती। फोटोग्राफरों और रिपोर्टरों की मौजूदगी सुनिश्चित की जाती। राजनीतिकों के अलावा कई सेलिब्रिटी भी सफाई के मैदान में कूद पड़े। इस तरह झाड़ू थाम कर फोटो खिंचाने की होड़ लग गई और स्वच्छता अभियान समारोह में बदल गया। इसमें प्रचार पाने पर कितना जोर रहा इसका अंदाजा उन कुछ नाटकीय घटनाओं से लगाया जा सकता है जिनमें विशिष्ट व्यक्ति के सफाई करने से पहले वहाँ कूड़ा लाकर बिखेरा गया। अगर सफाई के लिए कूड़ा जुटाना पड़े तो इसका मतलब है कि सफाई अभियान चलाने की कोई जरूरत ही नहीं है। प्रचार पाने की भूख के अलावा अपने नेता की नजरों में चढ़ने के लिए भी इस कार्यक्रम का खूब इस्तेमाल हुआ। आज भी प्रचार-प्रसार पर ही ज्यादा जोर दिखता है।

 

स्वच्छता अभियान समारोह में बदल गया। इसमें प्रचार पाने पर कितना जोर रहा इसका अंदाजा उन कुछ नाटकीय घटनाओं से लगाया जा सकता है जिनमें विशिष्ट व्यक्ति के सफाई करने से पहले वहाँ कूड़ा लाकर बिखेरा गया। प्रचार पाने की भूख के अलावा अपने नेता की नजरों में चढ़ने के लिए भी इस कार्यक्रम का खूब इस्तेमाल हुआ। आज भी प्रचार-प्रसार पर ही ज्यादा जोर दिखता है।

 

खुले में शौच का मतलब बीमारियों को निमन्त्रण देना है। खुले में शौच से डायरिया, हैजा जैसे घातक संक्रमण-जनित रोगों के फैलने का खतरा रहता है। आँकड़े बताते हैं कि पाँच साल से कम उम्र के चार से पाँच लाख बच्चे प्रतिवर्ष इन्हीं संक्रामक बीमारियों के चलते मौत के मुँह में चले जाते हैं। महिलाओं के लिए खुले में शौच के लिए जाने की विवशता तो और भी भयावह है। शौचालय न होने की वजह से उन्हें अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ये समस्याएँ सीधे तौर पर उनकी सुरक्षा से जुड़ी हुई है। आँकड़ों की पोटली टटोलने पर ज्ञात होता है कि खुले में शौच के दौरान तीस प्रतिशत महिलाओं को विभिन्न उत्पीड़नों का शिकार होना पड़ा है। यह भारत के लिए लज्जा की बात है, यह उसकी कथित प्रगति के माथे पर बहुत बड़ा कलंक है। प्रधानमन्त्री ने पिछले साल दो अक्टूबर को घोषित किया था कि एक साल के बाद कोई भी स्कूल बिना शौचालय के नहीं होगा, और हर स्कूल में लड़कियों के लिए अलग शौचालय होगा। तब से एक साल बीत चुका है। लेकिन यह लक्ष्य अभी अधूरा है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के हिसाब से यह लक्ष्य और पहले पूरा हो जाना चाहिए था।

 

भारत को निर्मल भारत बनाने के लिए तरह-तरह के अभियान चलाए जा रहे हैं, इसके बावजूद यथास्थिति बनी हुई है। कहीं ऐसा तो नहीं कि सिर्फ कागजी तौर पर निर्मल भारत की कवायद चल रही है? पिछले वर्ष सरकार ने खुले में शौच को राष्ट्रीय शर्म बताते हुए 2015 तक आखिरी व्यक्ति तक शौचालय की सुविधा पहुँचाने की बात कही थी और साथ में यह भी बताया था कि स्वच्छता अभियान पर सरकार सालाना चौदह सौ करोड़ रुपया खर्च करती है। इसके बावजूद खुले में शौच जैसी कुप्रथा का न मिटना कई सवाल खड़े करता है। कहीं सरकार इसके नाम पर सिर्फ धन का अपव्यय तो नहीं कर रही है?

 

स्वच्छ भारत के लिए पंचायत स्तर पर भी अभियान चलाए जा रहे हैं, लेकिन सम्पूर्ण स्वच्छता अभी दूर की कौड़ी लगती है। अगर हम सरकारी आँकड़ों का ही जिक्र करें तो अभी तक देश की कुल ढाई लाख ग्राम पंचायतों में से मात्र अट्ठाईस हजार ग्राम पंचायतें ही निर्मल बन पाई हैं। अगर हमें लक्ष्य को हासिल करना है तो तेजी से और योजनाबद्ध ढंग से कार्य करना होगा। बेशक हाल के दिनों में देश में इस मसले पर जागरूकता फैलाने की कोशिशें बढ़ी हैं। इससे पहले भी सरकार की प्राथमिकता में यह मुद्दा लगातार बना रहा। पिछले बीस वर्षों में इस पर साढ़े बारह सौ अरब रुपए से ज्यादा खर्च किए जा चुके हैं। बावजूद इसके, हालात आज भी ऐसे नहीं हो सके कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भारत शर्मिन्दगी से बच सके।

 

पहले दुनिया हमें एक गरीब देश के रूप में देखती थी। इस वजह से गरीबी, भुखमरी और कुपोषण की इंतिहा दर्शाने वाली स्थितियों को भी खास आश्चर्य की बात नहीं माना जाता था। मगर पिछले दो दशक के विकास के बाद अब भारत सम्पन्न और शक्तिशाली देशों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़ा होता है और वैश्विक समस्याओं को सुलझाने की प्रक्रिया में बराबर की हिस्सेदारी करता है। स्वाभाविक है कि जिन मोर्चो पर उसकी नाकामी को पहले सहानुभूति के साथ लिया जाता था, उन्हीं नाकामियों को अब पचाना किसी के लिए भी मुश्किल हो गया है। पिछले करीब दो दशक में दुनिया के स्तर पर खुले में शौच जाने वाले लोगों की संख्या में 21 फीसद की उल्लेखनीय कमी आई है। 1990 में यह संख्या एक सौ तीस करोड़ थी जो 2012 में घटकर सौ करोड़ पर आ गई।

 

आँकड़ों के लिहाज से देखें तो एशियाई देशों की उपलब्धि भी कम नहीं दिखती। 1990 में यहाँ की पैंसठ फीसद आबादी खुले में शौच के लिए जाती थी। 2012 तक यह अनुपात अड़तीस फीसद रह गया। मगर भारत के सन्दर्भ में साठ करोड़ की संख्या अब भी नीति-निर्माताओं को मुँह चिढ़ा रही है। घरों में शौचालय बनवा देने मात्र से ‘निर्मल भारत’ का अभियान पूरा होने वाला नहीं है। आमतौर पर देखा गया है कि घर में शौचालय होने के बाद भी लोग खुले में शौच के लिए जाते हैं। इसका कारण उनकी आदतें और कुछ भ्रामक धारणाएँ हैं। आज भी गाँवों में यह माना जाता है कि स्वस्थ रहना है तो खुले में शौच के लिए जाएँ। इस तरह की बातों में लोग न आएँ, इसके लिए उन्हें जागरूक करना होगा।

 

महात्मा गाँधी ने कहा था, स्वतन्त्रता से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है स्वच्छता। निर्मल भारत का अभियान महात्मा गाँधी के सपने को साकार करने का अभियान है। इसके लिए हमें लम्बे समय से चली आ रही भ्रान्तियों को तोड़ना होगा। सभी समुदायों को साथ लेकर लोगों को जागरूक करना होगा। यह स्वच्छता का अभियान है, इसे लेकर राजनीति नहीं होनी चाहिए। हर किसी को साफ, स्वच्छ और स्वस्थ भारत के निर्माण में भागीदार बनना होगा। सरकारी, गैर-सरकारी और निजी तौर पर गम्भीरता से प्रयास करने होंगे। जब वातावरण साफ स्वच्छ होगा, तो जनमानस भी स्वस्थ होगा। भारत को निर्मल बनाने के लिए देश के प्रत्येक व्यक्ति को योगदान देना होगा। सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाओं और देश के जागरूक नागरिकों को आगे आकर स्वच्छ भारत की पहल को एक राष्ट्रीय अभियान में बदलना होगा तभी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का निर्मल भारत का सपना साकार हो सकेगा।

 

लेखक ईमेल : sunil.tiwari.ddun@gmail.com

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