प्लास्टिक बना जहर

27 Sep 2015
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मनीषा सिंह

 

इंग्लैंड के धातुविज्ञानी अलेक्जेंडर पार्किस ने कोई डेढ़ सौ साल पहले प्लास्टिक की खोज की थी, तब इसे हाथोंहाथ लिया गया था। आगे चलकर कई दूसरी वैज्ञानिक खोजें इससे जुड़ीं। लेकिन अब यही उपलब्धि अभिशाप बन चली है। सारी दुनिया में प्लास्टिक उत्पादों को नियन्त्रित और प्रतिबन्धित करने की माँग उठ रही है। दैनिक जीवन में इसके बढ़ते इस्तेमाल को लेकर चिकित्सक लगातार चेतावनियाँ जारी कर रहे हैं। नए अध्ययनों में इसके इस्तेमाल से कैंसर तक होने की आशंका जताई जा रही है। इसके हानिकारक पहलुओं को उकेरता एक आलेखः

 

दुनिया में हर सेकेंड आठ टन प्लास्टिक का सामान बनता है। हर साल कम-से-कम साठ लाख टन प्लास्टिक कचरा समुद्रों में पहुँच जाता है। प्लास्टिक कचरे का केवल पन्द्रह फीसद हिस्सा पृथ्वी की सतह यानी जमीन पर बचा रह पता है, बाकी सारा कचरा समुद्र में जाकर जमा हो जाता है। पर्यावरण मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर ने संसद में जानकारी दी है कि देश के साठ बड़े शहर रोजाना 3,500 टन से अधिक प्लास्टिक कचरा निकाल रहे हैं। 2013-14 के दौरान देश में 1.1 करोड़ टन प्लास्टिक की खपत हुई, जिसके आधार पर यह जानकारी सामने आई कि दिल्ली, चेन्नई, मुम्बई, कोलकाता और हैदराबाद जैसे बड़े शहर सबसे ज्यादा प्लास्टिक कचरा निकाल रहे हैं।

 

प्लास्टिक जब खिलौनों की शक्ल में आता है तो और लुभावना लगता है। पर बच्चों को प्लास्टिक के खिलौने देने वाले माँ-बाप को चिकित्सक सावधान कर रहे हैं। खिलौने में जिन रंगों का इस्तेमाल किया जाता है वे बच्चों के लिए बेहद हानिकारक हैं। खिलौने में आर्सेनिक और सीसे का इस्तेमाल होता है, जो कि जहरीले होते हैं। खेलने के दौरान बच्चे इन्हें मुँह में डाल लेते हैं। रंगों में कई ऐसे रसायन मौजूद होते हैं जिनसे कैंसर का खतरा हो सकता है। इनसे भविष्य में प्रजनन में भी परेशानी आ सकती है।

 

उपयोग के दौरान और कचरे के रूप में बच जाने वाला प्लास्टिक इंसानों-जानवरों समेत प्रकृति को भी भारी नुकसान पहुँचा रहा है। थैलियों, दूध और पानी की बोतलों, लन्च बॉक्स या डिब्बाबन्द खाद्य पदार्थों का सेवन मनुष्य स्वास्थ्य को इसलिए नुकसान पहुँचाता है क्योंकि गर्मी और धूप आदि कारणों से प्लास्टिक विषैले प्रभाव उत्पन्न करती हैं जो कैंसर आदि तमाम बीमारियाँ पैदा करती हैं। सच्चाई तो यह है कि प्लास्टिक अपने उत्पादन से लेकर इस्तेमाल तक सभी अवस्थाओं में पर्यावरण और समूचे पारिस्थितिकी तन्त्र के लिए खतरनाक है। इसका निर्माण पेट्रोलियम पदार्थों से प्राप्त तत्वों-रसायनों से होता है, इसलिए यह उत्पादन अवस्था, प्रयोग के दौरान और कचरे के रूप में फेंके जाने पर कई तरह की रासायनिक क्रियाएँ करके विषैले असर पैदा करता है। प्लास्टिक के जिन बर्तनों, कप-प्लेटों में खाने और चाय-कोल्ड ड्रिंक आदि पेय पदार्थ मिलते हैं, कुछ समय तक उनमें रखे रहने के कारण रासायनिक क्रियाएँ होने से वह खान-पान विषाक्त हो जाता है। शोधों से पता चला है कि प्लास्टिक से बनी पानी की बोतलें अगर कुछ समय तक सूर्य के प्रकाश में रहती हैं तो उनमें मौजूद पानी जहरीला हो जाता है, जिसके लगातार सेवन से पेट में कैंसर जैसे रोग हो सकते हैं।

 

प्लास्टिक में अस्थिर प्रकृति का जैविक कार्बनिक एस्सटर (अम्ल और अल्कोहल से बना घोल) होता है, जो कैंसर पैदा करने में सक्षम है। सामान्य रूप से प्लास्टिक को रंग प्रदान करने के लिए उसमें कैडमियम और जस्ता जैसी विषैली धातुओं के अंश मिलाए जाते हैं। जब ऐसे रंगीन प्लास्टिक से बनी थैलियों, डिब्बों या दूसरी पैकिंग में खाने-पीने के सामान रखे जाते हैं तो ये जहरीले तत्त्व धीरे-धीरे उनमें प्रवेश कर जाते हैं। कैडमियम की अल्प मात्रा के शरीर में जाने से उल्टियाँ हो सकती हैं, हृदय का आकार बढ़ सकता है। इसी प्रकार जस्ता नियमित रूप से शरीर में पहुँचता रहे तो इंसानी मस्तिष्क के ऊतकों का क्षरण होने लगता है जिससे स्मृतिभ्रंश जैसी बीमारियाँ होती हैं।

 

उपयोग के दौरान और कचरे के रूप में बच जाने वाला प्लास्टिक इंसानों-जानवरों समेत प्रकृति को भी भारी नुकसान पहुँचा रहा है। थैलियों, दूध और पानी की बोतलों, लन्च बॉक्स या डिब्बाबन्द खाद्य पदार्थों का सेवन मनुष्य स्वास्थ्य को इसलिए नुकसान पहुँचाता है क्योंकि गर्मी और धूप आदि कारणों से प्लास्टिक विषैले प्रभाव उत्पन्न करती है जो कैंसर आदि तमाम बीमारियाँ पैदा करती हैं। सच्चाई तो यह है कि प्लास्टिक अपने उत्पादन से लेकर इस्तेमाल तक सभी अवस्थाओं में पर्यावरण और समूचे पारिस्थितिकी तन्त्र के लिए खतरनाक है।

 

इसी तरह, पॉलिथीन कचरा भी मानव से लेकर पशु-पक्षियों के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। लोगों में तरह-तरह की बीमारियाँ फैल रही हैं, जमीन की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है और भूगर्भीय जलस्रोत दूषित हो रहे हैं। प्लास्टिक के ज्यादा सम्पर्क में रहने से लोगों के खून में थैलेट्स की मात्रा बढ़ जाती हैं। इससे गर्भवती महिलाओं के शिशु का विकास रुक जाता है और प्रजनन अंगों को नुकसान पहुँचता है। प्लास्टिक उत्पादों में प्रयोग होने वाला बिस्फेनाल रसायन शरीर में मधुमेह और लिवर एंजाइम को असंतुलित कर देता है। इसी तरह पॉलिथीन कचरा जलाने से कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और डाइऑक्सींस जैसी विषैली गैसें उत्सर्जित होती हैं। इनसे साँस, त्वचा आदि से सम्बन्धित बीमारियाँ होने की आशंका बढ़ जाती है।

 

प्लास्टिक से होने वाले अन्य खतरों से जुड़ी एक चेतावनी ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने जारी की है। उन्होंने प्लास्टिक से बने लन्च बॉक्स, पानी की बोतल और भोजन को गरम और ताजा रखने के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाली पतली प्लास्टिक फॉइल (क्लिंज फिल्म) के बारे में सचेत किया है कि इनमें 175 से ज्यादा दूषित घटक होते हैं, जो बीमार करने के लिए जिम्मेदार हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि अगर भोजन गरम हो या उसे गरम किया जाना हो तो ऐसे खाने को प्लास्टिक में बन्द करने से या प्लास्टिक के टिफिन में रखने से दूषित रसायन खाने में चले जाते हैं।

 

इससे कैंसर और भ्रूण के विकास में बाधा समेत कई बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। इन खतरों के मद्देनजर ब्रिटेन में कैंसर-संस्थान खाने को पैक करने और गरम रखने के लिए प्लास्टिक उत्पादों का उपयोग बन्द करने की सलाह देने लगे हैं। खतरा तो दूध की प्लास्टिक बोतलों को लेकर भी है। असल में, प्लास्टिक की बोतल में रासायनिक द्रव्यों की कोटिंग होती है। बोतल में गरम दूध डालने पर यह रसायन दूध में मिलकर बच्चे के शरीर में पहुँच कर नुकसान पहुँचाता है।

 

दूध की बोतल के अलावा शराब, कोल्ड ड्रिंक्स और पैक्ड फूड को नमी से बचाने के लिए कई कम्पनियाँ प्लास्टिक में इसी की रासायनिक कोटिंग करती हैं। गोवा में बनने वाली विशिष्ट किस्म की शराब फेनी को आमतौर पर प्लास्टिक जार में रखा जाता है। ऐसी स्थिति में यह शराब धीरे-धीरे ‘कैंसरजनक’ हो जाती है। विशेषज्ञों ने यह चेतावनी कई बार दी है कि पीवीसी जार में रखी फेनी को पीने से मुख या रक्त कैंसर होने का खतरा होता है। ऐसे में जो रसायन पैदा होते हैं, वे हमारे शरीर में पहुँचने पर दिल, गुर्दे, लीवर और फेफड़ों को नुकसान पहुँचाते हैं।

 

हमारी दिनचर्या में सुबह से शाम तक प्लास्टिक निर्मित इतनी चीजें शामिल रहती हैं कि उनसे बचना कठिन है। साफ तौर पर प्लास्टिक के दो पक्ष हैं। एक वह है जिसमें वह हमारे जीवन को सुविधाजनक बनाता है और दूसरा वह जिसमें वह एक प्रदूषक तत्त्व की तरह मौजूद रहता है।

 

वैज्ञानिक अलेक्जेंडर पार्किस ने इसे धातु के बेहतरीन विकल्प के तौर पर 1862 में पेश किया था। इस यात्रा में प्लास्टिक ने सबसे ज्यादा तरक्की पिछले 40-50 वर्षों में की है। जीवन से जुड़ी हर जरूरत के सामान में प्लास्टिक ने घुसपैठ कर ली। आज प्लास्टिक को एक समस्या के रूप में देखा जा रहा है। बड़ी कम्पनियों के सामान की 85 फीसद पैकिंग में प्लास्टिक के कवर से लेकर रस्सियाँ तक इस्तेमाल में लाए जाते हैं। लेकिन जहाँ इस्तेमाल होने तक यह प्लास्टिक सुविधा प्रदान करता है, उपयोग के दौरान होने वाली रासायनिक क्रियाओं और उसके बाद कूड़े-कचरे में बदलने पर यह दुनिया के लिए बड़ी समस्या बनता जा रहा है।

 

पिछले साल सितम्बर में केन्द्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी करके दवाओं को प्लास्टिक से बनी शीशियों और बोतलों में पैक करने पर रोक लगाने का इरादा जाहिर किया था। कहा गया था कि दवाओं की प्लास्टिक शीशियाँ और बोतलें मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण, दोनों के लिए हानिकारक हैं। हालाँकि दवा उद्योग इसके लिए राजी नहीं है क्योंकि इससे उसके कारोबार पर असर पड़ सकता है। देखा गया है कि पिछले करीब एक दशक में कई तरह के सिरप, टॉनिक और दवाएँ प्लास्टिक पैकिंग में बेची जाने लगी हैं। इनकी वजह यह है कि ये शीशियाँ और बोतलें सस्ती पड़ती हैं और इनके टूटने का खतरा भी नहीं होता। पर सवाल यह है कि इनसे खतरा क्या है? वैज्ञानिकों का दावा है कि प्लास्टिक बोतलों में पाए जाने वाले एक खास तत्त्व थैलेट्स मनुष्य की सेहत पर प्रतिकूल असर डालते हैं। इनकी वजह से हारमोनों का रिसाव करने वाली ग्रन्थियों का क्रिया-कलाप बिगड़ जाता है। ऐसा एक शोध अमेरिका में ब्रीघम यंग विश्वविद्यालय में किया गया है। वहाँ के वैज्ञानिकों ने अध्ययन में पाया कि प्लास्टिक बोतलों की दवाओं के सेवन से महिलाओं में थैलेट्स की मात्रा ज्यादा हो गई जो उनके शरीर में हारमोनों के रिसाव में गड़बड़ी पैदा करने लगा। इन महिलाओं में मधुमेह के लक्षण पाए गए। कुछ अध्ययनों में थैलेट्स को कैंसर पैदा करने में भी सहायक पाया गया है।

 

पर सवाल यह है कि इनसे खतरा क्या है? वैज्ञानिकों का दावा है कि प्लास्टिक बोतलों में पाए जाने वाले एक खास तत्त्व थैलेट्स मनुष्य की सेहत पर प्रतिकूल असर डालते हैं। इनकी वजह से हारमोनों का रिसाव करने वाली ग्रन्थियों का क्रिया-कलाप बिगड़ जाता है।

 

भारत में इस समस्या का संज्ञान लेते हुए सरकार ने प्लास्टिक बोतलों में दवाओं की पैकेजिंग से सेहत को होने वाले नुकसान की विस्तृत जाँच करने के लिए एक समिति गठित की थी, जिसने प्लास्टिक बोतलों में दवाएँ बेचने पर रोक लगाने की सिफारिश की है। प्लास्टिक की एक खतरनाक शक्ल थैलियों यानी कैरी बैग के रूप में दिखाई देती है, जिनमें रखकर दुकानदार कोई सामान देता है। ये कैरी बैग सौ ग्राम से लेकर एकाध कुंतल सामान तक लाने ले जाने में काम आते हैं। सब्जी वाला इनमें भिण्डी या कोई अन्य तरकारी देता है तो किसान खाद ऐसे ही प्लास्टिक थैलों में लाते हैं और गेहूँ और अन्य अनाज इन्हीं में बाजार या मण्डी में ले जाते हैं। आमतौर पर ये कैरी बैग तब तक कोई समस्या नहीं बनते, जब तक कि इन्हें कचरे में फेंका नहीं जाता है। लेकिन कचरे में पहुँचते ही इनसे तरह-तरह की समस्याएँ पैदा होती हैं। सबसे पहले इनसे साफ-सफाई में बाधा पड़ती है। आम गाँव-कस्बे या शहर से लेकर एवरेस्ट जैसी पहाड़ की चोटियों में ये कैरी बैग कचरे की तरह मौजूद रहते हैं। इसके अलावा नालियों और सीवर में फँसने के कारण ये बहते प्रदूषित पानी का रास्ता रोकते हैं। हमारे देश में गायों को कचरे के ढेर से ऐसे कैरी बैग खाते और गम्भीर रूप से बीमार होकर मरते तक देखा जाता है।

 

असल में कैरी बैग से प्रदूषण की अहम वजह है जैविक रूप से नष्ट (बायोडिग्रेडेबल) होने की क्षमता का नहीं होना। ये कैरी बैग जहाँ फेंक दिए जाते हैं, वहाँ वर्षों या दशकों तक गलते नहीं हैं और इस प्रकार पर्यावरण के शत्रु बन जाते हैं। पतले कैरी बैगों की रिसाइक्लिंग सम्भव नहीं है, इसलिए कूड़ा बीनने वाले इन्हें नहीं उठाते। मोटे कैरी बैग बेचकर वे कुछ पैसा अवश्य बना लेते हैं। दुनिया में हर साल पाँच सौ अरब से ज्यादा प्लास्टिक बैगों का इस्तेमाल होता है। यह आँकड़ा वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्यूट का है। इस संस्था के अनुसार इनमें से पाँचवा हिस्सा तो अकेले अमेरिकी ही उपयोग करते हैं। भारत में कैरी बैगों की खपत प्रति व्यक्ति तीन किलोग्राम तक की है, जबकि यूरोप में यह औसत साठ किलोग्राम और अमेरिका में अस्सी किलोग्राम तक है। हमारे देश में यों कैरी बैगों की प्रति व्यक्ति खपत कम है, लेकिन जनसंख्या ज्यादा होने और कूड़ा कहीं भी फेंक देने की आदत के कारण प्लास्टिक हमारे लिए बड़ी समस्या बन गया है। यही वजह है कि आज देश में कूड़े-कचरे में दस फीसद हिस्सा प्लास्टिक का ही होता है।

 

पिछले वर्ष प्लास्टिक बैगों से जानवरों की मौत और बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण को चिन्ता का विषय बताते हुए केन्द्र सरकार चालीस माइक्रोन से कम के प्लास्टिक बैग का उत्पादन करने वाली औद्योगिक इकाइयों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने की बात कही थी। इस सम्बन्ध में पर्यावरण मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर ने संसद में जानकारी दी थी कि चालीस माइक्रोन से नीचे के प्लास्टिक बैग बनाने वाली इकाइयों के खिलाफ जुर्माने की राशि में वृद्धि करने के साथ ही बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक सम्बन्धी एक पायलट परियोजना पर काम जारी है जिसके इस्तेमाल से देश को प्लास्टिक थैलियों के कचरे से मुक्ति दिलाने में मदद मिलेगी। उन्होंने यह भी बताया था कि सम्बन्धित कानूनों को ठीक से नहीं लागू किए जाने के कारण दस-बीस माइक्रोन के प्लास्टिक बैग भी बाजार में उपलब्ध हैं।

 

साभार : जनसत्ता 27 सितम्बर 2015

 

लेखिका ईमेल: manudays@gmail.com

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