कठिन डगर पर बढ़ता स्वच्छ भारत अभियान

3 Oct 2015
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नीतेश राय

 

15 अगस्त 2014 को प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से स्वच्छ भारत की परिकल्पना की थी तो हर कोई अचम्भित रह गया था। अपने इस लाल किले की प्राचीर से उद्बोधित पहले भाषण में स्वच्छता के प्रति मोदी का न सिर्फ दर्द छलका, बल्कि एक लक्ष्य निर्धारित कर उसे पूरा करने का जज्बा भी। ऐसा पहली बार नहीं हुआ, इससे पहले भी जब 1981 की जनगणना में यह तथ्य सामने आया था कि भारत में स्वच्छता कवरेज सिर्फ एक प्रतिशत है तो 1986 में केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता मिशन (सीआरएसपी) शुरू किया गया था। जिसमें ‘डिग्निटी ऑफ वूमेन’ की बात की गई थी, जिसका जिक्र मोदी ने लाल किले से पिछले साल दिये अपने भाषण में किया था। इस अभियान की शुरुआत भी काफी अहम रही क्योंकि इसके लिये 2 अक्टूबर की तारीख का चुनाव किया गया, जिसका महत्व काफी खास है। पूरा राष्ट्र इस दिन राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की जयंती मनाता है जो स्वच्छता के अग्रदूत थे। प्रधानमन्त्री ने अपने इस अभियान की शुरुआत करते समय यह संकल्प लिया कि जब 2019 में पूरा राष्ट्र राष्ट्रपिता की 150वीं जयंती मनाएगा तो हम गाँव, शहर, मोहल्ला, गली, स्कूल, मन्दिर आदि सभी क्षेत्रों में गन्दगी का नामोनिशान नहीं रहने देंगे।

 

खुले में शौच करने की समस्या के पीछे बहुत ऐसे लोग हैं जो गरीबी को मुख्य कारण मानते हैं। लेकिन ये सही नहीं है। अगर ऐसा होता तो बांग्लादेश में भी लोग खुले में शौच करते जिसकी जीडीपी भारत की तुलना में काफी कम है लेकिन सत्य यह है कि आज बांग्लादेश में कोई भी खुले में शौच नहीं करता। यह बात नि:सन्देह सही है कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के झाड़ू उठाने और स्वच्छता की अपील का भारतीय जनमानस पर व्यापक असर पड़ा है। लेकिन यह भी सच्चाई है कि भारत की 75 करोड़ आबादी गाँवों में है लेकिन इनमें से 50 करोड़ के पास आज भी शौचालय की सुविधा नहीं है।

 

इस पूरे एक साल के सफर में स्वच्छता अभियान ने कितना रास्ता तय किया है, इसका नजारा हम दिल्ली में सफाई कर्मियों की हड़ताल के दौरान देख चुके हैं। ये सत्य है कि इस अभियान की सफलता जन जागरुकता पर निर्भर है। जिस तरह से पिछले साल इस अभियान की शुरुआत के दौरान ‘सेल्फी विद स्वच्छ भारत’ की शुरुआत हुई उसकी धार इस समय के बदलते परिप्रेक्ष्य में कुंद पड़ गई है। क्या केवल सेल्फी लेकर सोशल साइट पर अपलोड कर देने से इस अभियान की सफलता सुनिश्चित की जा सकती है? ऐसे यक्ष प्रश्नों का जवाब दिए बगैर इस अभियान को पूरा नहीं किया जा सकता है। इस अभियान के सफलता की मुख्य कड़ी ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रो में सभी परिवारों को शौचालय उपलब्ध कराना है ताकि लोग खुले में शौच न करें और गाँव की माँ-बहनो को शौच करने के लिये अन्धेरे का इन्तजार न करना पड़े।

 

खुले में शौच करने की समस्या के पीछे बहुत ऐसे लोग हैं जो गरीबी को मुख्य कारण मानते हैं। लेकिन ये सही नहीं है। अगर ऐसा होता तो बांग्लादेश में भी लोग खुले में शौच करते जिसकी जीडीपी भारत की तुलना में काफी कम है लेकिन सत्य यह है कि आज बांग्लादेश में कोई भी खुले में शौच नहीं करता। यह बात नि:सन्देह सही है कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के झाड़ू उठाने और स्वच्छता की अपील का भारतीय जन मानस पर व्यापक असर पड़ा है। लेकिन यह भी सच्चाई है कि भारत की 75 करोड़ आबादी गाँवों में है लेकिन इनमें से 50 करोड़ के पास आज भी शौचालय की सुविधा नहीं है। ऐसे में इस अभियान को तय समय में पूरा करने के लिये जज्बे के साथ संसाधनों का होना बेहद जरुरी है।

 

 

 

 

हम और स्वच्छ भारत

 

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी द्वारा शुरू किए गए ‘स्वच्छ भारत’ अभियान को पूरा एक साल हो गया है। सवाल इस बात का है कि एक साल में सफाई और स्वच्छता से जुड़े अपने मकसद में समाज और सरकार कितने सफल हुए हैं? इस सवाल का मुनासिब जवाब न तो सरकार के पास है और न ही समाज के पास। असल में सफाई को लेकर हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं है। सरकार ने भी उतनी ईमानदारी से इस दिशा में सही प्रयास नहीं किए जो समाज में प्रेरणा का काम कर सके। पिछले साल प्रधानमन्त्री द्वारा दो अक्टूबर को गाँधी जयंती पर ‘स्वच्छ भारत‘ अभियान का शुभारम्भ करने के बाद समूचा अभियान सरकार और सत्ताधारियों नेताओं के साथ-साथ प्रचार के आकांक्षी लोगों के लिए एक दिखावटी इवेंट बन कर रह गया। कोई अभियान तब तक अपने मकसद में सफल नहीं हो सकता जब तक उसे लेकर हमारी सोच और समझ स्पष्ट न हो।

 

असल में सफाई श्रमसाध्य काम है और आज बनावट, सजावाट और दिखावट से जुड़ी बाजारवादी संस्कृति में शारीरिक श्रम को निम्न माना जाता है। श्रम के प्रति हमारा यह नजरिया ‘स्वच्छ भारत’ अभियान में अवरोध का काम कर रहा है। सम्पन्न और समृद्ध मध्यवर्गीय परिवारों में घर की सफाई के लिए भी नौकर रखे जाते हैं। घर के अन्दर भी खुद सफाई करना लोग अपनी तौहीन समझते हैं। दिल्ली सहित देश के अन्य क्षेत्रों से जुड़े डेंगू के समाचार विचलित तो करते हैं पर मच्छर पैदा होने वाले कारणों की अनदेखी करते हैं। असल में हम किसी विचार और घटना से न तो सबक लेते हैं और न ही उससे जुड़ने की कोई मंशा होती है।

 

स्वच्छ भारत अभियान की धीमी गति के लिए सरकार को पूरी तरह जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि इस तरह के राष्ट्रीय अभियान सामूहिक रूप से बिना जन सहभागिता के सफल नहीं हो सकते। अगर बड़े लोग अपनी सोच में बदलाव लाएँ और घरों से निकल अपने गली-मोहल्लों में सामूहिक रूप से जुड़कर प्रतिदिन एक घण्टा सफाई अभियान चलाएँ तो नई पीढ़ी को प्रेरणा मिलेगी और अन्य लोगों का भी साथ मिलेगा। बस जरूरत है ईमानदार पहल की। स्वच्छ भारत जैसे बदलाव के राष्ट्रीय अभियान के लिए हमें दिल और दिमाग के साथ अपनी सहमति बनानी होगी। ऐसा कौन-सा शख्स होगा जिसे स्वच्छता पसन्द न हो, तब फिर सफाई को लेकर मन में इतना संकोच क्यों? इसके लिए सबसे पहल हमें अपने मिथ्या दिखावे और अहंकार से लड़ना होगा। तभी स्वच्छ भारत से स्वस्थ भारत का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।

 

साभार : कल्पतरु एक्सप्रेस 3 अक्टूबर 2015

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