अभियान एक : उम्मीदें अनेक

5 Nov 2015
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ज्ञानेन्द्र बरतरिया

 

स्वच्छ भारत अभियान का एक वर्ष पूर्ण हो गया है। इस अभियान की शुरुआत प्रधानमन्त्री ने महात्मा गाँधी की जयंती 2 अक्टूबर 2014 को की थी। स्वच्छ भारत अभियान को सन 2019 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। सहभागिता की दृष्टि से यह देश का सबसे बड़ा अभियान है, जिसमें केन्द्र सरकार और उसके अनेक मन्त्रालय, राज्य सरकारें, तमाम राजनीतिक दल, गैर सरकारी संगठनों, छात्रों, डॉक्टरों, इंजीनियरों, किसानों और आध्यात्मिक नेताओं से लेकर खिलाड़ियों, बड़े उद्योगपतियों और मुम्बई के डिब्बे वालों तक तमाम सक्रिय व्यक्तियों की भागीदारी है। इसमें भागीदार स्वयंसेवकों से प्रति सप्ताह 2 घंटे श्रमदान करके स्वच्छता बनाए रखने की अपेक्षा की जाती है और इसके लिए वे संकल्प भी लेते हैं।

 

अपने दायरे की दृष्टि से भी यह देश का सबसे बड़ा अभियान है, जिसे बाकी और शहरी क्षेत्रों के अतिरिक्त, देश भर के 72 प्रतिशत से अधिक ग्रामीणों तक पहुँचना है। अपने दायरे की गहराई की दृष्टि से यह देश का ही नहीं, विश्व का सबसे बड़ा अभियान है, जिसे 130 करोड़ लोगों तक, उनके घरों तक और उनके आसपास के क्षेत्र तक पहुँचना है। अपने प्रभाव की दृष्टि से भी यह देश का सबसे बड़ा अभियान है, जिसका असर पेयजल की उपलब्धता और गुणवत्ता से लेकर खेती की लागत, ऊर्जा के कुछ पक्षों से लेकर पर्यटन और स्वास्थ्य, कुछ मायनों में कानून और व्यवस्था तक पर पड़ता है। कई लोगों का मानना है कि इससे जीवन और पर्यावरण की गुणवत्ता पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभावों का आर्थिक पहलू भी है, जो कई स्थानों पर विनिर्माण की उत्पादन लागत कटौती में और कई बार मानवीय पूँजी के निर्माण में सहयोगकारी के रूप में सामने आ सकता है।

 

एक साल में यह अभियान कहाँ से कहाँ पहुँचा? सच यह है कि इस तरह के किसी अभियान की सफलता को किसी मापदंड पर रख सकना सम्भव नहीं है। स्वच्छता को तोला या नापा नहीं जा सकता, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। जिसे महसूस किया जाना हो, उसे आँकने का सबसे अच्छा तरीका प्रवृत्तियों में, दृष्टिकोण में आए परिवर्तन पर गौर करने का है। एक सर्वेक्षण के अनुसार 51 प्रतिशत लोग मानते हैं कि स्वच्छ भारत अभियान बच्चों की मनोवृत्ति में परिवर्तन लाने में सफल रहा है और बच्चों का नागरिकता बोध सफाई के प्रति सचेत हुआ है। इसी सर्वेक्षण के अनुसार 32 प्रतिशत लोग नहीं मानते हैं कि स्वच्छ भारत अभियान से बच्चों की आदतों और प्रवृत्तियों पर कोई असर पड़ा है। इसी तरह लगभग 13 प्रतिशत लोगों का मानना है कि उनके अपने शहर में सार्वजनिक शौचालयों की उपलब्धता में सुधार हुआ है। 21 प्रतिशत नागरिकों का मानना है कि स्वच्छ भारत अभियान के कारण उनका शहर पिछले एक साल में पहले से ज्यादा साफ सुथरा बन गया है।

 

21 प्रतिशत, अर्थात हर पाँच में से कम से कम से कम एक व्यक्ति और स्वच्छ भारत अभियान के कारण साफ-सफाई की स्थिति में सुधार आने की बात स्वीकार करने वालों में सिर्फ मझोले या छोटे शहर नहीं हैं। बेंगलुरु जैसे महानगर में 39 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने स्वच्छता के स्तर में सुधार आने की बात स्वीकार की है। (स्वच्छ भारत नेशनल सर्किल)।

 

आँकड़ों से परे जाकर देखा जाए, तो जो तस्वीर उभरती है, वह उम्मीदों को एक दूसरे स्तर पर ले जाती है। करोड़ों टन शहरी कचरे का वैज्ञानिक निपटान, ऊर्जा, पदार्थों के पुनर्नवीकरण से लेकर खाद तक का बड़ा स्रोत हो सकता है। प्रतिवर्ष 5 करोड़ 50 लाख टन नगरपालिका के ठोस कचरे और 38 अरब लीटर सीवेज से, जिसमें 1 से 1.33 प्रतिशत वार्षिक की दर से वृद्धि भी होने का अनुमान है, 1700 मेगावॉट बिजली पैदा की जा सकती है। 1500 मेगावॉट ठोस कचरे से और 225 मेगावॉट सीवेज से। अभी भारत इस ऊर्जा स्रोत का मात्र 2 प्रतिशत उपयोग कर पा रहा है। हालाँकि कचरे को ऊर्जा में बदलने की परियोजनागत लागत, स्वाभाविक है, अन्य साधारण परियोजनाओं की तुलना में थोड़ी ज्यादा बैठती है।

 

वास्तव में स्वच्छ भारत अभियान भौतिक और मानसिक लक्ष्यों का युग्म है। सरकार के स्तर पर इसके लिए भौतिक लक्ष्य रखे गए हैं, जैसे कि जब यह कहा जाता है कि स्वच्छ भारत अभियान को सन 2019 तक पूरा करना है, तो शहरी सन्दर्भ में इसे नापने का पैमाना यह है कि 2019 तक सभी तरह के शहरी कचरे का शत-प्रतिशत वैज्ञानिक ढंग से निपटान किया जाए। भारत के शहरों में प्रतिवर्ष 4 करोड़ 70 लाख टन ठोस कचरा उत्पन्न होता है और 75 प्रतिशत से ज्यादा सीवेज बिना निपटारे के किसी न किसी रास्ते से नदियों तक पहुँच जाता है (केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड)। एक अन्य आंकलन के अनुसार भारत में प्रति वर्ष 5 करोड़ 50 लाख टन नगरपालिका का ठोस कचरा और 38 अरब लीटर सीवेज उत्पन्न होता है। इस कचरा उत्पादन में 1 से 1.33 प्रतिशत वार्षिक की दर से वृद्धि भी होने का अनुमान है। यह उद्योगों द्वारा पैदा किए जाने वाले कचरे के अतिरिक्त है (एनर्जी आल्टरनेटिव्स इंडिया)।

 

शहरी क्षेत्र में हर घर में शौचालय बनाने, सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालय बनाना साफ-सफाई की प्राथमिक शर्त है। राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे कार्यालय द्वारा पेयजल, स्वच्छता, स्वास्थ्य और रिहायशी परिस्थितियों पर किए गए सर्वेक्षण के 69वें दौर (जुलाई 2012-दिसम्बर 2012) के अनुसार देश के 59.4 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र में शौचालय की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। देश भर में 4,041 वैधानिक कस्बे हैं, जिनमें स्थित लगभग 1.04 करोड़ घर इस अभियान के लक्ष्य में शामिल हैं। शहरी क्षेत्र में अभियान के लक्ष्यों में दो लाख से ज्यादा सीटें सार्वजनिक शौचालयों में, दो लाख से ज्यादा सीटें सामुदायिक शौचालयों में उपलब्ध कराना और हर कस्बे में ठोस कचरे का उचित प्रबंधन करना शामिल है। वह कुछ क्षेत्र जिनमें घरेलू शौचालय बनाने में समस्या है वहाँ सामुदायिक शौचालय बनाए जाएंगे। सार्वजनिक स्थानों जैसे बाजारों, बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों के पास, पर्यटक स्थलों पर और सार्वजनिक मनोरंजन स्थलों पर सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण किया जाएगा। शहरी विकास मन्त्रालय ने इस मिशन के लिए 62,000 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं।

 

इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में भी इस अभियान के एक साथ कई लक्ष्य हैं। स्वच्छता के मूलभूत उद्देश्य के साथ-साथ स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति भी इसके लक्ष्यों में शामिल है। इसके लिए ग्रामीण विकास मन्त्रालय हर गाँव को पाँच वर्ष तक हर वर्ष 20 लाख रुपये देगा। इस अभियान के तहत सरकार ने हर परिवार में व्यक्तिगत शौचालय की लागत 12,000 रुपये तय की है ताकि सफाई, नहाने और कपड़े धोने के लिए पर्याप्त पानी की आपूर्ति की जा सके। पेयजल और स्वच्छता मन्त्रालय द्वारा इस अभियान पर 1,34,000 करोड़ रुपये खर्च किए जाने का अनुमान है।

 

जाहिर है, चुनौती बहुत बड़ी है और इस चुनौती से सिर्फ सरकारी नियमों के स्तर पर नहीं निपटा जा सकता है, हालाँकि उनकी अपनी महत्ता है। इसी कारण इसके साथ ही मानसिक लक्ष्य यह है कि लोगों में साफ-सफाई और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता विकसित की जाए। इस आशय के समाचार प्रकाशित हुए हैं कि जागरूकता विकसित करने में ग्रामीण क्षेत्रों में कहीं-कहीं चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। कुछ ऐसे भी मामले सामने आए हैं, जिनमें रिहायशी मकान ही इतना छोटा है कि उसमें शौचालय के लिए स्थान निकाल सकना सम्भव नहीं हो पाया है। इसी तरह कुछ लोगों ने सरकारी मदद से शौचालय निर्माण कराने के बाद (सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय निर्माण के लिए 12 हजार रुपये की मदद देती है।) उसका प्रयोग भूसा रखने या किसी और काम में किया, यह समाचार भी मिले हैं।

 

यह चुनौती मूलतः जागरूकता विकसित करने की और सम्भवतः कुछ स्थितियों में विवशता की है। इसी में स्वयं अभियान के सामने की चुनौती भी निहित है। अगर इस अभियान को निर्मल भारत अभियान की तरह विफलता से बचना है, तो उसे कई स्थानों पर कानूनी हैसियत अपने हाथ में लेनी होगी। जिसमें दण्डात्मक शक्ति भी हो, उसे साथ ही निगरानी का एक तन्त्र भी विकसित करना होगा और सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण तौर पर, स्वयं इस अभियान को अगले चरण की अभिकल्पना करके उस दिशा में बढ़ने की तैयारी शुरू करनी होगी। जैसे-जैसे यह अभियान दूसरे चरण में बढ़ता जाएगा, प्रथम चरण में छूट गए बिन्दु स्वतः उभर कर सामने आते जाएंगे। सरकार इसमें अर्थशास्त्र के या ज्यादा सही शब्दों में मार्केटिंग के, उन तरीकों का भी प्रयोग कर सकती है, जो स्वच्छता को विलासिता के बजाए माँग में बदल दें।

 

इस अभियान को आँकड़ों से परे जाकर देखा जाए, तो जो तस्वीर उभरती है, वह उम्मीदों को एक दूसरे स्तर पर ले जाती है। करोड़ों टन शहरी कचरे का वैज्ञानिक निपटान (और उसके तरीके सुझाने के लिए जाने-माने वैज्ञानिक रघुनाथ अनंत माशेलकर के नेतृत्व में 19 सदस्यीय विशेषज्ञ समिति भी) ऊर्जा से लेकर पदार्थों के पुनर्नवीकरण से लेकर खाद तक भारी स्रोत हो सकता है। प्रति वर्ष 5 करोड़ 50 लाख टन नगरपालिका के ठोस कचरे और 38 अरब लीटर सीवेज से, जिसमें 1 से 1.33 प्रतिशत वार्षिक की दर से वृद्धि भी होने का अनुमान है, (एनर्जी आल्टरनेटिव्स इंडिया) 1700 मेगावॉट बिजली पैदा की जा सकती है। 1500 मेगावॉट ठोस कचरे से और 225 मेगावॉट सीवेज से (नव एवं पुनर्नवीकरण ऊर्जा मन्त्रालय, भारत सरकार)। अभी भारत इस ऊर्जा स्रोत का मात्र 2 प्रतिशत उपयोग कर पा रहा है। हालाँकि कचरे को ऊर्जा में बदलने की परियोजना लागत, स्वाभाविक है, अन्य साधारण परियोजनाओं की तुलना में थोड़ी ज्यादा बैठती है। स्वाभाविक इसलिए कि यहाँ कचरे को पहले ईंधन में परिवर्तित भी करना होता है, वहाँ पहले से तैयार ईंधन होता है।

 

यह चुनौती मूलतः जागरूकता विकसित करने की और सम्भवतः कुछ स्थितियों में विवशता की है। इसी में स्वयं अभियान के सामने की चुनौती भी निहित है। अगर इस अभियान को निर्मल भारत अभियान की तरह विफलता से बचाना है, तो उसे कई स्थानों पर कानूनी हैसियत अपने हाथ में लेनी होगी। जिसमें दण्डात्मक शक्ति भी हो।

 

लेकिन अगर इस कचरे का वैज्ञानिक ढंग से निपटान न हो, तो कल्पना करें कि 1 से डेढ़ प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर से यह कचरा कितनी जमीन और कितने जल क्षेत्र पर पसरता जाएगा? इसकी कल्पना करना कठिन है लेकिन यह कल्पना सहज की जा सकती है कि वैज्ञानिक ढंग से निपटान होने से बहुत सारे जल और भू-क्षेत्र की संरक्षा की जा सकती है। यह एक ऐसा विशाल आर्थिक लाभ है, जो हर अगले प्रयोग पर ज्यादा से ज्यादा लाभ देता जाता है। जल क्षेत्र के स्वच्छ बने रहने से, पर्यावरण की सुरक्षा के अतिरिक्त, मनुष्य समाज को भी अनेक जलजनित रोगों के प्रकोप से मुक्त मिल सकती है। इन रोगों से होने वाली जीवन हानि से बचने के अतिरिक्त, इनकी दवाइयों पर होने वाले खर्च, बीमारियों के कारण होने वाले उत्पादन की क्षति और स्वास्थ्य सेवाओं पर पड़ने वाले दबाव का खर्च अगर जोड़ा जाए, तो यह रकम कई अरब में बैठेगी। वैसे भी और हर साल में, स्वास्थ्य रक्षा सभी का मौलिक अधिकार है।

 

ग्रामीण क्षेत्रों में, जहाँ प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएँ भी सहज नहीं हैं, वहाँ जलजनित रोगों के प्रकोप से बचाव जीवन की गुणवत्ता में भारी सुधार लाने वाला सिद्ध होगा, साथ ही पीने और सिंचाई के लिए जल की उपलब्धता में भी नाटकीय ढंग से वृद्धि करेगा। स्वच्छ भारत अभियान की आर्थिक लाभदेयता की अगर ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में चर्चा की जाए तो कुछ बहुत रोचक पहलू सामने आते हैं। जैसे सूखी पत्तियों को जलाने के स्थान पर भूमि में दबाना, जो स्वच्छ भारत अभियान में निहित है। मात्र दो वर्ष के अन्दर न केवल भूमि की उर्वरता में वृद्धि करता है, बल्कि इससे रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम हो जाती है, पैदावार में वृद्धि होती है और नमी को बनाए रखने की मिट्टी की क्षमता बढ़ती है। माने यह खेती के लिए वरदान साबित हो सकता है और जैविक कृषि से लेकर हाल में किए गए नए कृषि सम्बन्धी प्रयोग, जो अत्यधिक जुताई न करने की सलाह देते हैं, उनके साथ पूरी तरह ताल-मेल भी बैठा लेता है। घरों में शौचालय होना महिलाओं के लिए, सुरक्षा के लिहाज से भी बहुत उपयोगी है।

 

जाहिर है, इन सारी चीजों को अनिश्चित काल के लिए टाला नहीं जा सकता है। सफाई, अपने गुणों और लाभों के अतिरिक्त, वास्तव में सभ्यता के स्तर की भी परिचायक होती है। अगर भारत को जीवन के अन्य क्षेत्रों में आगे बढ़ना है, तो उसे सभ्यता के स्तर के क्षेत्र में भी आगे बढ़ना होगा। दोनों विकास एक दूसरे के पूरक हैं। भारत जैसा विशाल भूभाग और विशाल जनसंख्या वाला देश एक झटके में ऐसा कर सकता है, यही किसी चमत्कार से कम नहीं है। यही कारण है कि स्वच्छ भारत अभियान को विश्व भर में सराहना मिल रही है।

 

लेखक गत 25 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इस दौरान दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, राष्ट्रीय सहारा, जी न्यूज, इंडिया टीवी आदि प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्रों व चैनलों में काम कर चुके हैं। आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक विषयों पर लिखना इनकी रुचि है। ईमेल : gnbartaria@gmail.com

 

साभार : योजना नवम्बर 2015

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